हाल ही में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) द्वारा किए गए एक अध्ययन ने दिल्ली के स्कूली बच्चों में मोटापा, उच्च रक्तचाप और चयापचय संबंधी विकारों (metabolic disorders) की खतरनाक वृद्धि को उजागर किया है। यह केवल दिल्ली तक सीमित नहीं है—बल्कि पूरे देश में एक व्यापक समस्या बन चुकी है। भारत अब एक दोहरे पोषण संकट का सामना कर रहा है: एक ओर ग्रामीण और गरीब क्षेत्रों में कुपोषण, तो दूसरी ओर शहरी और संपन्न वर्गों में अत्यधिक पोषण और मोटापा। यह बदलाव हमारे बदलते शहरी जीवनशैली, गलत खानपान की आदतों, बैठकर बिताए जाने वाले समय और सामाजिक-आर्थिक असमानताओं की देन है। अगर समय रहते इस पर ध्यान नहीं दिया गया, तो यह भारत की स्वास्थ्य प्रगति को पलट सकता है और आने वाले समय में बीमारी का भारी बोझ लाद सकता है।
AIIMS द्वारा 2024 में किए गए इस अध्ययन में दिल्ली के लगभग 4,000 बच्चों (6 से 19 वर्ष की उम्र के) को शामिल किया गया, जिनमें से 13.4% बच्चे मोटापे से ग्रसित पाए गए और 7.4% को उच्च रक्तचाप था। निजी स्कूलों के बच्चों में यह स्थिति और भी चिंताजनक थी—उनमें मोटापा 24% तक पाया गया, जबकि सरकारी स्कूलों में यह केवल 4.5% था। निजी स्कूलों के छात्र उच्च रक्त शर्करा और मेटाबॉलिक सिंड्रोम के मामलों में दो से तीन गुना अधिक प्रभावित थे। इन बच्चों में जल्दी हृदय रोग, टाइप 2 मधुमेह, मानसिक तनाव और हड्डियों से जुड़ी समस्याएं पाई गईं।
यह संकट केवल दिल्ली तक सीमित नहीं है। 2016–18 के Comprehensive National Nutrition Survey के अनुसार, भारत के 15.35% स्कूली बच्चे और 16.18% किशोर प्री-डायबिटिक थे। 2024 में The Lancet की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में मोटे बच्चों की संख्या 1990 में 0.4 मिलियन से बढ़कर 2022 में 12.5 मिलियन हो गई। इसका मुख्य कारण तेजी से हो रहे शहरीकरण और बदले हुए खानपान की आदतें हैं।
इस संकट के पीछे कई कारण हैं।
खानपान की आदतें बदल गई हैं—शहरी बच्चों के आहार में प्रोसेस्ड फूड्स और मीठे पेय पदार्थ आम हो गए हैं। इन चीजों का प्रचार अक्सर “मज़ेदार” या “स्वस्थ” बताकर किया जाता है, जिससे बच्चे प्रभावित होते हैं।
बैठे-बैठे बिताया गया जीवन—मोबाइल, टैबलेट और वीडियो गेम्स ने बच्चों का खेल का समय छीन लिया है।
माता-पिता का असर—कामकाजी माता-पिता सुविधाजनक लेकिन अस्वस्थ रेडी-टू-ईट भोजन पर निर्भर हो जाते हैं, और बच्चे भी वही जीवनशैली अपनाते हैं।
शहरी ढांचा—शहरों में खेलने के खुले स्थानों की कमी और सुरक्षा की चिंता बच्चों के बाहर खेलने को सीमित कर देती है।
शैक्षणिक दबाव भी एक कारण है—अधिकांश स्कूलों में पढ़ाई को प्राथमिकता दी जाती है, जिससे शारीरिक शिक्षा को कम समय दिया जाता है।
AIIMS की यह रिपोर्ट एक विडंबनात्मक सच्चाई को उजागर करती है: सम्पन्नता के साथ बच्चों का स्वास्थ्य और बिगड़ रहा है। निजी स्कूलों के बच्चों को बेहतर संसाधन तो मिलते हैं, लेकिन वही बच्चे जंक फूड और स्क्रीन टाइम के ज्यादा संपर्क में आकर बीमारियों के ज्यादा शिकार बन रहे हैं। भारत की पोषण स्थिति अब इतनी जटिल हो चुकी है कि कुपोषण और अधिक पोषण एक साथ मौजूद हैं—यह नीति-निर्माताओं के लिए एक बड़ी चुनौती बन गई है।
स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था पर इसके प्रभाव गंभीर हैं।
छोटे बच्चों में मधुमेह, हृदय रोग जैसी बीमारियों की समय से पहले शुरुआत देश के स्वास्थ्य ढांचे पर भारी दबाव डालेगी। मोटे बच्चे अक्सर स्कूलों में तानों और मानसिक उत्पीड़न का शिकार बनते हैं, जिससे आत्मसम्मान, चिंता और अवसाद जैसी मानसिक समस्याएं जन्म लेती हैं।
एक अस्वस्थ युवा पीढ़ी भारत के “डेमोग्राफिक डिविडेंड” (जनसांख्यिकीय लाभांश) को कमजोर कर सकती है, जो देश की आर्थिक शक्ति का आधार है।
आज के बच्चों का मोटापा कल के लिए भारी स्वास्थ्य खर्च का कारण बन सकता है, जबकि पहले से ही भारत में 60% से अधिक मौतें गैर-संक्रामक रोगों (NCDs) के कारण होती हैं।
सरकार ने इस दिशा में कुछ सकारात्मक कदम उठाए हैं।
CBSE ने स्कूलों में “शुगर बोर्ड” लगाने की पहल की है ताकि बच्चों को चीनी की खपत के खतरों के प्रति जागरूक किया जा सके।
FSSAI ने स्कूल कैंटीनों में हाई फैट, शुगर और सॉल्ट (HFSS) युक्त खाद्य पदार्थों पर रोक लगाने और “ईट राइट” अभियान को बढ़ावा देने के निर्देश दिए हैं।
नई शिक्षा नीति (NEP) 2020 ने स्वास्थ्य और कल्याण को स्कूल पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने पर जोर दिया है।

दुनिया के अन्य देशों से भी भारत को सीख लेनी चाहिए।
जापान में स्कूलों में अनिवार्य BMI जांच और रोजाना व्यायाम की व्यवस्था है।
यूके ने मीठे पेय पदार्थों पर टैक्स लगाया है और स्कूलों के भोजन के लिए हेल्दी मानक तय किए हैं।
चिली में जंक फूड पर चेतावनी लेबल और बच्चों के मीडिया पर विज्ञापन प्रतिबंध लागू हैं।
अमेरिका में मिशेल ओबामा की “Let’s Move” मुहिम ने स्कूलों और परिवारों को मिलाकर मोटापे से लड़ाई लड़ी।
भारत को भी इसी तरह शिक्षा, कर-प्रणाली और समुदाय भागीदारी का संतुलित दृष्टिकोण अपनाना होगा।
आगे क्या करने की ज़रूरत है?
- स्कूलों में दैनिक शारीरिक गतिविधि अनिवार्य की जाए (कम से कम 60 मिनट)।
- फिटनेस और स्वास्थ्य के लिए मूल्यांकन को शैक्षणिक परीक्षाओं के साथ जोड़ा जाए।
- स्कूल कैंपस और आसपास के क्षेत्रों में जंक फूड पर पूरी तरह रोक लागू हो।
- सरकारी जागरूकता अभियान चलाए जाएं—बच्चों, माता-पिता और शिक्षकों को पारंपरिक भोजन, लेबल पढ़ने और संतुलित जीवनशैली के बारे में शिक्षित किया जाए।
- शहरों की योजना में स्वास्थ्य का ध्यान रखा जाए—खेल के मैदान, साइकिल ट्रैक और मनोरंजन क्षेत्र विकसित किए जाएं।
- स्कूलों में नियमित स्वास्थ्य जांच हो—BMI, शुगर, ब्लड प्रेशर जैसे मापदंडों पर ध्यान दिया जाए।
- माता-पिता के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए जाएं—संतुलित पोषण, व्यायाम और स्क्रीन टाइम प्रबंधन पर।
- नीतियों के लागू करने में तेजी लाई जाए—राष्ट्रीय बचपन मोटापा दिशा-निर्देशों को ज़मीनी स्तर पर लागू किया जाए और इसे राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (NHM) में जोड़ा जाए।
निष्कर्ष
AIIMS का यह अध्ययन एक चेतावनी है। भारत के बच्चों का स्वास्थ्य केवल एक स्वास्थ्य मुद्दा नहीं, बल्कि एक सामाजिक चुनौती है। आर्थिक प्रगति और शैक्षणिक उत्कृष्टता की दौड़ में अगर हम आने वाली पीढ़ियों के स्वास्थ्य को भूल गए, तो भविष्य में हमें बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी।
अब समय आ गया है कि स्कूल, माता-पिता, नीति-निर्माता और समाज सभी मिलकर इस दिशा में ठोस कदम उठाएं। अगर आज हमने कुछ नहीं किया, तो भारत की डेमोग्राफिक डिविडेंड कल एक डेमोग्राफिक बोझ में बदल सकती है।